नया घर

17 सितंबर, 2011

राजभाषा’हिंदी’ को भी चाहिए-एक’अन्ना हजारे?



सविंधान के अनुच्छेद 343 (1)के अनुसार संघ की राजभाषा’हिंदी’ ऒर लिपी देवनागरी हॆ.सविंधान में यह व्यवस्था 26,जनवरी 1950 को की गयी.-क्या यह सच हॆ? आप भी कहेंगें-कॆसा बेतुका सवाल हॆ? सविधान में यदि लिखा हॆ तो सच ही होगा.दर-असल यह पूर्ण सत्य नहीं हॆ.पूर्ण सत्य यह हॆ कि स्वतंत्रता के पूर्व राष्ट्रभाषा व जनभाषा ’हिंदी’ को राजभाषा बनाने का जो सोच-विचार कर निर्णय लिया गया था-स्वतंत्रता के बाद उसे, पूरी ईमानदारी से लागू नहीं किया गया.सत्ता-लॊलुप कुछ स्वार्थी तत्वों ने संविधान में ही ऎसी व्यवस्था कर दी कि ’हिंदी’ व्यवहार में कभी भी राजभाषा न बन सके.उसी सॆविंधानिक व्यवस्था के कारण,आज हम राजनॆतिक रुप से स्वतंत्र होते हुए भी,सांस्कृतिक व भाषागत स्तर पर अभी भी गुलाम हॆं फर्क सिर्फ इतना आया हॆ कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे,लेकिन अब अपनों की ही गुलामी करने के लिए विवश हॆं.कहने के लिए-हमारे देश में लोकतंत्र हॆ लेकिन इस मामले में तो लगता हॆ कि सत्ता पर काबिज कुछ स्वार्थी लोग,जनता को अपने ही तरीके से हाक रहे हें.
सबसे पहले बात-’राजभाषा’के संबंध में समय-समय पर किये गये कानूनी प्रावधानों की.14 सितंबर,1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद’हिंदी’को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया गया,जिसे 26,जनवरी,1950 से लागू कर दिया गया.सविधान के अनुच्छेद343 में ही साथ-साथ यह व्यवस्था भी कर दी गयी कि संविधान के लागू होने से पहले,सरकारी कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग जॆसे पहले होता था,उसी प्रकार अगले 15 वर्षों तक होता रहेगा..संविधान के अनुच्छेद 343(6)में यह व्यवस्था भी की गयी कि संसद को यह अधिकार होगा कि वह अधिनियम पारित करके 15 वर्ष के बाद अर्थात,26 जनवरी 1965 के बाद भी,सरकारी काम-काज में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती हॆ.इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा राजभाषा अधिनियम 1963 पारित किया गया.जिसमें यह व्यवस्था की गयी कि हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग सभी सरकारी कार्यों ऒर संसद की कार्यवाही के लिए भी जारी रहेगा.जब इससे भी मन नहीं भरा तो अंग्रेजी के शुभचिंतकों ने राजभाषा (संशोधन)अधिनियम1967की धारा3(5)के रुप में एक उपबंध ऒर जुडवा दिया कि जब तक सभी राज्यों के विधानमंडल अंग्रेजी का प्रयोग समाप्त करने के लिए संकल्य पारित न दें तथा उन संकल्पों पर विचार करने के उपरांत संसद के दोनों सदन इसी आशय का संकल्प पारित न कर दें-तब तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा.एक पुरानी कहावत हॆ कि ’न तो नॊ मन तेल होगा ऒर न ही राधा नाचेगी’ कहने का मतलब यह कि अपने-अपने राजनॆतिक स्वार्थों में फंसे नेतागण-न तो अंग्रेजी का प्रयोग समाप्त करने का संकल्प पारित करेंगें ऒर न ही ’हिंदी’को राजभाषा का वास्तविक दर्जा मिलेगा.
सवाल सिर्फ ’हिंदी’ अथवा अंग्रेजी का नहीं हॆ.सवाल हॆ कि यदि हम वाकई एक स्वतंत्र देश के वासी हॆ, तो कब तक एक विदेशी भाषा का बोझ आपसी संवाद के लिए ढोते रहेंगें?क्या अंग्रेजी को राजभाषा के रुप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से मान्यता देकर-समाज के चंद मुट्ठी-भर लोग-आम लोगों को मानसिक रुप से गुलाम बनाने की साजिश नहीं रच रहे?.क्या इसे लोकतंत्र कहा जा सकता हॆ?
लोहिया जी ने ठीक कहा था-मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ हॆं जो अंग्रेजी के चलते हुए समाजवाद कायम करना चाहते हॆं.वे लोग भी बेवकूफ हॆं जो समझते हॆं कि अंग्रेजी के रहते हुए जनतंत्र आ सकता हॆ.हम तो समझते हॆं कि अंग्रेजी के होते यहां ईमानदारी आना भी असंभव हॆ.-इन पंक्तियों में लोहिया जी ने बहुत ही गहरी बात कही थी-जो आज सार्थक हो रही हॆ.प्रशासन में ईमानदारी कहां हॆं? अधिकारी की भाषा अंग्रेजी हॆ तो आम आदमी की हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएं.आम आदमी अपनी समस्या अपनी भाषा में लिखकर लेकर जाता हॆ लेकिन उसे जवाब उसकी भाषा में न मिलकर अंग्रेजी में मिलता हॆ.’हिंदी’पत्रों का जवाब हिंदी में देने की अनिवार्यता या तो राजभाषा नियमों में हॆ या फिर दीवार पर लिखकर टांगने के लिए.न तो इसकी परवाह पत्र का जवाब तॆयार करने वाले बाबू को हॆ ऒर न ही उसपर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को.परवाह करें भी क्यों? इसके लिए कोई नियमों में सजा का प्रावधान तो हॆ नहीं.क्या यह भी एक तरह की प्रशासन में बेईमानी नहीं हॆ?यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही हॆ.इन परिस्थितियों को देखते हुए क्या आपको नहीं लगता कि-आज राजभाषा’हिंदी’को भी एक अन्ना हजारे की जरुरत हॆ?